Saturday, March 24, 2012

गंगा बहती हो क्यों


रचना: पंडित नरेंद्र शर्मा
स्वर: भूपेन हजारिका


विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों


नैतिकता नष्ट हुयी,
मानवता भ्रष्ट हुयी
निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यों


इतिहास की पुकार करे हुंकार
ओ गंगा की धार
निर्बल जन को सबल संग्रामी
समग्र गामी बनाती नहीं हो क्यों


विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार
निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम,
ओ गंगा बहती हो क्यों


अनपढ़ जन अक्षरहीन,
अनगिन जन खाद्य विहीन
नेत्र विहीन
देख मौन हो क्यों


इतिहास की पुकार करे हुंकार
ओ गंगा की धार निर्बल जन को
सबल संग्रामी
समग्र गामी बनाती नहीं हो क्यों


विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों


व्यक्ति रहे व्यक्ति केंद्रित,
सकल समाज व्यक्तित्व रहित
निश्प्राण समाज को तोड़ती न क्यों


इतिहास की पुकार करे हुंकार
ओ गंगा की धार निर्बल जन को
सबल संग्रामी समग्र गामी बनाती नहीं हो क्यों


विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदाओ गंगा तुम,
गंगा बहती हो क्यों


श्रुतस्विनी क्यों न रहीं,
तुम निश्चय चेतन नहीं प्राणों में प्रेरणा देती न क्यों,
उन्मद अवनी कुरुक्षेत्र बनी
गंगे जननी नव भारत में,
भीष्म रूपी सुत समर जयी जनती नहीं हो क्यों


विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार
निःशब्द सदाओ गंगा तुम,
गंगा बहती हो क्यों

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